भारतीय संस्कृति और जाति-संस्था

- रवींद्र शिवदे

भारत की सभ्यता और संस्कृति दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इस संस्कृति की अनेक विशेषताएँ है। इनमें से एक विशेषता ऐसी है जो दुनिया में और कहीं नही पायी जाती। भारत के समूचे इतिहास पर इसका गहरा असर भी पड़ा है। वह विशेषता है जाति-संस्था।

आप कहेंगे कि उँच नीच का भेद भाव तो दुनिया के सब देशों में पाया जाता है। यह बात सच है, कि वर्ण (चमड़ी का रंग), या पेशा, या आर्थिक स्तर पर आधारित भेद-भाव दुनिया के सब देशों में दिखाई देता है।  वर्ण के आधार पर कई मानव समूहों पर बड़े भारी अत्याचार हुए है। अमरीका और योरप के कई देशों में तो ग़ुलामी जैसी अमानवीय प्रथाएँ भी प्रचलित थी। लेकिन जाति-संस्था की बात कुछ और है। जाति व्यवस्था चमड़ी के रंग पर आधारित नही, आर्थिक स्थिति पर आधारित नही, और आज कल तो पेशे पर भी आधारित नही रही। यह व्यवस्था सिर्फ जन्म पर आधारित है। आज के युग में इसका कोई प्रयोजन भी नही बचा है। उल्टा, इसकी वजह से समाज का विभाजन और नुकसान ही नुकसान हो रहा है। फिर भी यह व्यवस्था टिकी हुई है, और पनप रही है। ऐसा क्यूँ हो रहा है, इस के बारे में कुछ विचार मंथन करना ज़रूरी है।

सबसे पहले तो यह देखना होगा कि जाति व्यवस्था का उगम कैसे हुआ। क्या जाति व्यवस्था पुरातन काल से भारत में विद्यमान थी? अगर नही, तो यह कब और कैसे निर्माण हुई?

भारत का ज्ञात इतिहास सिंधु संस्कृति के कालखंड से शुरू होता है। हां, पुराणों में तो लाखों वर्ष पहले की घटनाएँ दर्ज है, लेकिन पुराणों को इतिहास नही माना जाता। सिंधु-काल के पहले तो आदि-मानवों की टोलियाँ घूमा करती थी। सबका पेशा एक था, भूख मिटाने के लिए जंगल से कंद मूल फल इकठ्ठा करना, शिकार करना। और सबकी जाति एक थी- टोली वाले। जैसे मानव समाज प्रगत होने लगा, गाँवों में और शहरों में बसने लगा, श्रम के विभाजन की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। श्रम का विभाजन एक प्राकृतिक और ज़रूरी व्यवस्था है, इसमें कोई संदेह नही। जहाँ जहाँ भी मानवी संस्कृति का विकास हुआ, वहाँ श्रम का विभाजन पाया जाता है। इसका कारण है- सभी मानव एक सरीखे नही होते। एक परिवार के सभी बच्चे भी एक सरीखे नही होते। किसी में बुध्दि की अधिकता होगी, तो किसी में बल की। कोई अपने हाथों से कारीगरी का काम अच्छी तरह कर पायेगा, तो कोई हिसाब किताब में होशियार होगा। यह भेद प्राकृतिक है। दुनिया के सभी देशों में पाया जाता है। अगर कारीगरी में होनहार बच्चे पर पढ़ाई लिखाई का काम ज़बरदस्ती से थोंपा गया, तो वह उस काम को उचित ढ़ंग से कर नही पायेगा। वह ख़ुद भी दुखी रहेगा और समाज भी उसके स्वाभाविक गुणसे, यानी कारीगरी से, लाभ उठाने से वंचित रह जाएगा।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भारत में वर्ण व्यवस्था का निर्माण हुआ। सिर्फ भारत में ही नही, दुनिया के सब हिस्सों में जहाँ जहाँ संस्कृति का विकास हुआ वहाँ पर वर्ण व्यवस्था पायी जाती है, भला उसे अलग नाम से जाना जाता हो। क्या सिंधु संस्कृति के कालखंड में वर्ण व्यवस्था थी? अवश्य रही होगी, लेकिन इसका प्रमाण हमारे पास नही है; क्यों कि सिंधु संस्कृति के बारे में बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है। वर्ण व्यवस्था का ज़िक्र सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है, जो भारत की और शायद दुनिया की भी सबसे पुरानी किताब है-

जिस सूक्त में वर्ण व्यवस्था का ज़िक्र है उसे 'पुरुष सूक्त' कहते है। ऋग्वेद के दशम मंडल का यह ९० वाँ सूक्त है। इसका १२ वाँ मंत्र इस प्रकार है-

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।

इस मंत्र को लेकर जितने वाद विवाद हुए है, शायद किसी भी वैदिक मंत्र के विषय में नही हुए होंगे, इसलिए इस मंत्र के अर्थ को सावधानी पूर्वक और गंभीरता से समझ लेना ज़रूरी है। शब्दशः इस मंत्रका अर्थ इस प्रकार है-

इसके (विराट पुरुष, परमात्मा के) मुख से ब्राह्मण बने, भुजाओं से क्षत्रिय बने, जंघाओं से वैश्य बने, और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।

मूल मंत्र में 'वर्ण' शब्द का प्रयोग नही, लेकिन इन्हीं चार विभागों को आगे चलकर चार वर्ण कहा गया। यहाँ दो बातों पर गौर करना ज़रूरी है। इन चार विभागों से किसी को वेद ने उच्च या नीच नही कहा। वेद यह भी नही कहते कि वर्ण की प्राप्ति जन्म होता है। वेद तो सिर्फ मानव समाज का प्रवृत्तियों के आधार पर चार वर्गों में विभाजन करते है। इन चार वर्गों के काम क्या है, इसके बारे में वेद ने स्पष्ट नही कहा है, लेकिन संकेत अवश्य किया है। शरीर का जो हिस्सा जो काम करता है, वही काम उस से उत्पन्न वर्ग का है। जैसे मुख का काम है बोलना। वेद काल में लिखने की कला अवगत नही थी, इसलिए समूचा ज्ञान ज़बानी याद किया जाता था। अर्थात मुख से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों का काम है, ज्ञान प्राप्त करना। शस्त्र हाथ से उठायें जाते है, इसलिए भुजाओं से उत्पन्न क्षत्रियों का काम है, लड़ना। कृषि, गोपालन के लिए पैरों से घूमना आवश्यक है। वाणिज्य के लिए भी पर्यटन आवश्यक है। अतः जांघों से उत्पन्न वैश्यों को यही काम सौंपे गये। सेवा का जो काम है, उसमें भी भाग दौड़ की आवश्यकता थी, इसलिए यह काम भी पैरों से उत्पन्न शूद्रों को दे दिया गया।

कुछ लोग यह मान लेते है, कि चूँ कि पैर शरीर का नीचे वाला हिस्सा है, उनका दर्जा हल्का है। शरीर के किसी भी हिस्से को श्रेष्ठ या कनिष्ठ मानना मूर्खता है। अगर मुँह सलामत हो, और पाँव में मोच आ गयी तो क्या मुँह से आदमी चल फिर सकता है? शरीर का हर एक हिस्सा अपनी जगह श्रेष्ठ है, वैसे ही हर एक वर्ण भी अपनी जगह श्रेष्ठ है। क्या जमीनसे ज्यादा दूर रहनेवाली चीजें श्रेष्ठ होती है? ऐसा कहना भी गलत है। घर का मुख्यालय तो नीचली मंज़िल पर ही होता है, जहाँ लोग प्रायः रहते है, सारे व्यवहार प्रायः होते है। सबसे उपरी माले पर, जो छत के नीचे होती है, रद्दी और भंगार सामान पड़ा हुआ होता है। तो यह साबित हुआ कि वेद किसी वर्ण को उच्च या नीच नही कहते, वेदों ने सब वर्णों को समान दर्जा दिया है।

भारतीय संस्कृति का दूसरा प्रमाणभूत ग्रंथ है भगवद् गीता, जो वेदों से कुछ अर्से बाद लिखी गयी। गीता ने चार वर्णों के बारे में महत्त्वपूर्ण विवरण किया है-

चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।  ।। ४-१३ ।।

और देखिए-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप । 
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥१८- ४१॥ 

 

अर्थात् चातुर्वण्य का सृजन मैंने (ईश्वर ने) गुण और कर्म के अनुसार किया है।  ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यों के कर्मों का विभाजन स्वाभाविक गुणों के अनुसार किया है। ध्यान दिजिए- चातुवर्ण्य का निर्माण गुण और कर्म और स्वभाव के अनुसार होता है, जन्म के अनुसार नही! अगर यही एक बात पक्की ध्यान में रखी जाती, तो भारत का इतिहास बदल जाता।

चार वर्णों के कामों के बारे में भी गीता विस्तार से कहती है-

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥१८- ४२॥

 

 

 

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥१८- ४३॥

 

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥१८- ४४॥

 

हर जगह पर वर्ण के निश्चय में स्वभाव यानी प्राकृतिक प्रवृत्ति (natural tendency) को महत्त्व दिया है। आधुनिक व्होकेशनल गायडन्स से यह बिल्कुल सु-संगत है।

अगर हमारे पूज्यतम ग्रंथ एक मुख से वर्ण के बारे में कहते है कि

  1. वर्ण गुण और कर्म और स्वभाव पर आधारित है, जन्म पर नही
  2. शरीर के हिस्से जैसे समान दर्जे के है, वर्ण भी समान है

तो फिर रोना किस बात का है?

दुर्भाग्यवश किताबों की रखवाली करने वालों ने वर्ण व्यवस्था के यह सिद्धांत मिट्टी में मिला दिये, और वर्ण व्यवस्था की जगह पर एक दूसरी व्यवस्था स्थापित की, जो जन्म पर आधारित थी। इसी का नाम है, जाति व्यवस्था। जाति व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण ही बनेगा, भले उसके गुण और कर्म कुछ भी हो। शूद्र की बेटी शूद्र ही बनेगी, भले उसे ज्ञान संपादन करने में बड़ी रुचि क्यों न हो। स्वभाव के अनुसार काम चुनने की स्वतंत्रता नष्ट हो गयी। वर्ण तो बदला भी जा सकता था, जैसे विश्वामित्र पहले क्षत्रिय थे, तपस्या के बाद ब्राह्मण बन गये। ऐसे कई उदाहरण है। लेकिन जाति व्यवस्था में  जन्म से प्राप्त जाति मरते दम तक कायम रहती है। और सबसे बुरी बात, इन जातियों को उँचा नीचा दर्जा प्रदान किया गया।

चार वर्णोंसे चार जातियाँ तो बनी, लेकिन मनुष्य स्वभाव के अनुसार दो विभिन्न जातियों के स्त्री पुरुषों में प्रेम-संबंध होने लगे। ऐसे संबंधों से उपजी हुई संतान को किस जाति में डाले? उनके लिए एक नयी संकरित जाति का निर्माण किया गया! जैसे ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री की संतान को निषाद कहते है। ब्राह्मण स्त्री और शूद्र पुरुष की संतान को चंडाल कहते है। इस प्रकार सैंकडो जातियाँ उत्पन्न हो गयी। नयी जातियों के लिए विभिन्न पेशे भी निश्चित किए गये। जैसे निषाद को नदियों पर नाव खेने का काम दिया गया। चंडाल को स्मशानों की देखभाल करने का काम मिला। इसका विस्तृत विवरण मनुस्मृति में पाया जाता है। इस प्रकार भारत के समाज के हजारों टुकडे हो गये।

इन जातियों का एक दूजे के साथ मिलना-जुलना बंद कर दिया गया। क्यों कि संकर का भय था। संकर से किताबों के रखवाले बहुत डरते थे क्यों कि उससे जाति व्यवस्था में बाधा आती थी। एक जाति के लोगों का दूसरी के साथ रोटी बेटी व्यवहार बंद हो गया। स्थिति इतनी भयानक हो गयी की एक दूसरे के हाथ का पानी भी पीना बंद हो गया। एक ही जाति में विभिन्न उप-जातियाँ भी पैदा हुई। बात यहाँ तक पहुँची की उप-जातियों में आपस में भी खान पान बंद हो गया। एक उपजाति का ब्राह्मण दूसरी उपजाति से खाना नही ले सकता। 'तीन कनौजिएँ और तेरा चूल्हे' यह कहावत इसी का प्रमाण है। स्वामी विवेकानंद ने  केरल को 'मॅड हाउस ऑफ कास्टीझम' कहा। लेकिन पूरा भारत देश ही एक पागलखाना बन चुका था।

कई जातिओं को तो छूना भी पाप समझा जाने लगा। अस्पृश्यता की कुप्रथा प्रचलित हुई। ये सारी कुप्रथाएँ धर्म के आधार पर प्रचलित हुई। किताबों की रखवाली करनेवालों ने ख़ुद की जाति को उच्च तम घोषित किया। उच्च जाति के लोगों ने इस व्यवस्था को बरक़रार रखने के लिए नाना छडयंत्र रचे। क्यों कि अगर जाति प्रथा ख़त्म हो जाती तो उन्हे मिलने वाली सुविधाएँ भी नष्ट हो जाती। इस प्रथा को धर्म का आधार देने के लिए तरह तरह की स्मृतियाँ लिखी। इन स्मृतिओं को प्राचीन वैदिक ऋषिओं के नाम भी दे दिये, ताकि वह सर्वमान्य हों- जैसे मनु, पराशर, याज्ञवल्क्य, देवल आदि। वास्तविक यह स्मृतियाँ अर्वाचीन है, प्राचीन वैदिक ऋषिओं का उनसे कोई संबंध नही। लेकिन इन स्मृतियों के आधार पर समूचे हिंदु समाज पर भयानक ज़ुल्म ढ़ाया गया। हज़ारों वर्षों तक समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को जानवरों की तरह कष्ट ढ़ोने पर मजबूर किया गया और बदले में उन्हें जानवरों से भी निकृष्ट दर्जे का जीवन प्राप्त हुआ।

इसमें क्या अचरज है, कि यह स्थिति परकीय आक्रमकों के लिए एक सुनहरा मौका बन गयी। इस शतखंडित, खोखले और असंतुष्ट समाज पर जब आक्रमण हुए तब वह ताश के पत्तों की ईमारत के भांति उनके सामने टिक नही पाया, और हमारी भव्य दिव्य सभ्यता को इने गिने आक्रमकों ने तहस नहस कर डाला। कत्लें, लूटमार, धर्मांतर रोज़मर्रा की बातें हो गयी। आज भी इन आक्रमणों के परिणाम भारत का समाज भुगत रहा है।

इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ महानुभवाओं ने प्रयास भी किए। जाति संस्था पर उन्होंने कड़े प्रहार किए। इनमें बुद्ध, महावीर, कबीर, नानक, महर्षी दयानंद आदि महात्मों के नाम अग्रिम है। उन्हें सफलता भी मिली। करोडों भारतीय आज उनकी सीख पर चल रहे है। फिर भी भारतीय समाज के मुख्य प्रवाह में जाति-संस्था का पत्थर आज भी अडिग है।

क्या वजह है, की इक्कीसवी सदी में आज भी भारत में जाति संस्था दृढमूल है? उसका प्रभाव घटते नही, बढते जा रहा है? इसके लिए जिम्मेदार खल-प्रवृति के दो गुट है- तथाकथित सनातनी लोग, और राजनेता।

तथाकथित सनातनी लोग जो आर्य धर्म के शुद्ध स्वरूप से अनभिज्ञ है, और कुप्रथाओं को ही धर्म मान लेते है, यह समझते है कि जातियों के नष्ट होने से धर्म नष्ट हो जाएगा। उन्हें धर्म का शुद्ध वेद-प्रणित स्वरूप समझाने की ज़रूरत है। राजनीती वाले तो समझाने से नही सीखेंगे, क्यों कि उन्हे जाति के आधार पर चुनाव लड़ना है, और मतों का गठ्ठा पाना है। आरक्षण के नाम पर भारी आतंक मचता है, मचाया जाता है। आरक्षण की ज़रूरत है इस बात से कोई भी समझदार व्यक्ति सहमत होगा, क्यों कि पीछड़ी जातियों पर सदियों के लिए अन्याय हुआ है। लेकिन आरक्षण अनंत काल के लिए नही। उसे क्रमशः हटाना होगा। पीछड़ी जातियों को अपने पैरों पर खड़े होकर पीछडे पन के लेबल को भी फेंक देना होगा। राजनीतीज्ञ यही चाहते है कि पीछड़ी जाति के लोग पीछड़े ही रहे, आरक्षण माँगते रहे, और उन्हें वोट देते रहे। जाति का नाम लेने वाले राजनीतीज्ञों के हौसलों को मतपेटी के माध्यम से कुचल देना चाहिए। यही उनके लिए ठीक सबक होगा।

जाति प्रथा बुरी तो थी, और है, लेकिन उससे कुछ लाभ भी थे, इस तथ्य को नज़र अंदाज़ नही किया जा सकता। जाति से उपजीविका की सुरक्षा बनी रहती थी। क्यों कि एक जाति का पेशा दूसरी जाति का व्यक्ति नही कर सकता था। दूसरा लाभ यह था कि पुश्तैदी तौर पर वही पेशा बाप बेटे को सिखाता था, बेटा अपने बेटो को, और इस तरह अनेक पीढ़ीयों में वही काम करते करते उस काम में उस जाति के लोग पारंगत हो जाते थे।

लेकिन आज ज़माना बदल चुका है। आज जाति और पेशे का रिश्ता टूट चुका है। यह भी ज़रूरी नही कि बाप का पेशा बेटा अपनाएँ। इसलिए जाति-संस्था एक काल- बाह्य व्यवस्था बन गयी है। जब काल-बाह्य व्यवस्थाएँ दूर नही हटायी जाती तो परिणाम क्या होता है? बॉल पेन और कॉम्प्यूटर टाईपिंग के जमाने में कलम-दवात इस्तेमाल करने पर अड़े रहने का परिणाम क्या होगा? या मोटर बाईक के बदले घुड़सवारी पर अड़े रहने का परिणाम क्या होगा?

आशा है कि शीघ्र ही युवा पीढ़ी देश को दुर्बल और खंडित बनानेवाली इस ज़ालिम और उपयोगशून्य व्यवस्था को उखाडकर फेंक देगी, और नये भारत के निर्माण में जुट जाएगी!