हमारा राष्ट्रीय रोग- अनास्था


- डॉ. रवींद्र शिवदे

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरें ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरें ॥ (मैथिली शरण गुप्त)

 

प्राचीन काल में यूनान देश में एक बड़े नीतिज्ञ पैदा हुए जिनका नाम था ईसप। ईसप एक ग़ुलाम थे। उनके मालिक का नाम था झांथस। उन दिनों यूनान में सार्वजनिक स्नानघर हुआ करते थे, जिनमें जाकर अमीर लोग नहाया करते थे। इन स्नानघरों में अक्सर काफ़ी भीड़ हुआ करती थी। एक दिन झांथस ने ईसप से कहा, ' जाओ, देखकर आओ, स्नानघर पर कितने आदमी हैं।' ईसप स्नानघर जाकर वापस लौट आये और मालिक से बोले, 'हुजूर, स्नानघर पर सिर्फ एक ही आदमी है।' यह सुनकर झांथस जल्दी जल्दी स्नानघर की ओर चल पडे और उनके साथ ईसप भी स्नान की सामग्री वगैरह लेकर चले। स्नानघर पहुँचकर झांथस ने देखा- वहाँ तो बहुत भीड़ थी! झांथस आग बबूला हो गये और ईसप से कड़ककर बोले, 'क्यों बे ईसप के बच्चे! तूने तो कहा था कि स्नानघर पर सिर्फ एक ही आदमी है, और यहाँ तो आदमीयों का ताँता लगा हुआ है! तूने झूट क्यूँ बोला? अब मैं तेरी अच्छी मरम्मत करूँगा!' ईसपने नम्रता से कहा 'मालिक, मैंने झूट नहीं बोला। मैं जब स्नानघर पहुँचा तो मैंने देखा कि स्नानघर के रास्ते में एक बडा पत्थर पड़ा था। सब लोग उससे टकरा रहे थे। कई लोग गिर भी पड़े, लेकिन उस पत्थर को रास्ते से हटाने की कोशिश किसीने नही की। आखिर एक आदमी आया, वह भी उस पत्थर से टकराया। लेकिन उस आदमी ने बड़ी मुश्किल से पत्थर को उठाया और रास्तेसे दूर हटाया। वही एक व्यक्ति मनुष्य कहलाने के लायक़ है, हुज़ूर! इसलिए मैंने कहा कि स्नानघर पर सिर्फ एक ही मनुष्य है।' ईसप की बात सुनकर झांथस ख़ुश हुए और दंड देनेके बजाय ऊन्होंने ईसप की प्रशंसा की।

 

यूँ तो अपने ख़ुद के लिए सभी जीव जंतु जीते है, लेकिन मनुष्य से कुछ और उम्मीद है। मनुष्य एक ऐसा प्राणि है जो उत्क्रांति की चरम अवस्था को पहुँच चुका हैं। मनुष्य को चाहिए कि वह केवल अपने ही नही, अपने आप पास के सभी प्राणि मात्रों के योगक्षेम का विचार करें। इसी को आस्था कहते है, और इसके विपरित है अनास्था।

 

दुर्भाग्य की बात है कि आज हमारे समाज जीवन में आस्था का लोप हो रहा है। आस्था सिर्फ एक टी. वी. चॅनेल के रूप में नाम मात्र रह गयी है, और घोर अनास्था का फैलाव हो रहा है।

 

पढ़िये इन ख़बरों को, आपके रोंगटे खड़े हो जाएँगे-

 

हिंदुस्तान टाईम्स ( २ सितंबर २०१६)-

गुरूवार को आधी रात के समय जयपूर शहर की एक मुख्य सडक पर हादसे में एक ३० वर्षीय व्यक्ति की मौत हो गयी। मृत व्यक्ति की लाश क़रीब आधे घंटे तक सड़क के बीचोबीच पड़ी थी। उसे कुचलते हुए कई गाड़ियाँ वहाँ से गुज़री लेकिन कोई रुका नही। जब तक पुलिस वहाँ पर पहुँची, लाश के अंग छिन्न भिन्न होकर सडक पर तितर बितर हो चुके थे। सामाजिक अनास्था का यह भीषण उदाहरण है। इस घटना से देहली के उस सडक हादसे की स्मृतियाँ जागृत होती है, जिसमें एक आदमी लहु लुहान होकर सडक पर ही मर गया लेकिन किसीने उसे बचाया नही।

 

जब किसीकी ज़िंदगी बचाने के विषय में हम इतनी अनास्था रखते हैं , तब इसमें क्या संदेह है कि सार्वजनिक स्वच्छता के बारे में हमारे कान पर जूँ तक नही रेंगती?

 

जब कोई व्यक्ति विदेश की यात्रा से लौटकर बंबई के सहार हवाई अड़्ड़े पर पहुँचता है, तब उसके लिए सबसे दर्दनाक अनुभव होता है घर वापसी के रास्ते पर दोनों तरफ़ फैले हुए गंदगी के ढेर और मानवी विष्ठा का दर्शन! स्वातंत्र्यवीर सावरकर के देशभक्ति भरे गीत की पंक्तियाँ तो उसके कानों में गूँजती रहती है- 'हे सागर, मुझे मेरी मातृभूमि की ओर ले चल, मेरे प्राण पँखेरू उड जाने को हैं।' लेकिन एक अर्से के बाद होने वाला मातृभूमि का घृणास्पद दर्शन उसे अपार खिन्नता से भर देता है। यह गंदगी के अंबार देश के भीतरी हिस्से में बसे हुए गाँवों तक दिखाई देते हैं। अगर इस गंदगी से राहत पानी है, तो पहाडों पर या जंगलों में जाना पडता है, जहाँ हमारे देशवासीय आसानी से पहुँच नही पाते।

 

कितने सारे विश्व यात्रियों ने भारत की गणना दुनिया के सबसे गंदे देशों में की हैं, लेकिन हमें इस पर कोई खेद नहीं।

 

अचरज की बात तो यह है कि अपने देशवासी अगर विदेश में जाकर स्थित हो जाएँ तो स्वच्छता के नियमों का बड़ी दक्षता से पालन करते हैं। चाहे वह देश सिंगापूर हो, या अमरिका, या इंग्लैंड, या कोई भी युरोपीय देश, वहाँ पहुँचते ही स्वच्छता के विषय में इनकी आस्था जाग उठती है। क्या यह कानूनी कारवाई के डर से होता है? या फिर इस देश की मिट्टी में ही कुछ दोष है जो यहाँ बसने वालों को अनास्था की तरफ़ ले जाता है?

 

हमारी अनास्था केवल सड़क हादसे, या स्वच्छता अभियान तक सीमित नही, जीवन के हर क्षेत्र में उसका प्रभाव दिखाई देता है। जैसे कि यातायात के नियमों का पालन करना। हेल्मेट पहनना। पानी का उपयोग सावधानी से करना। वृक्ष लगाना। इस हद तक कि हमारे स्वास्थ्य के बारे में भी हम कमाल की लापरवाही दिखाते हैं। जब तब कोई डॉक्टर हमें सलाह नहीं देता, तब तक हमें व्यायाम की ज़रूरत महसूस नहीं होती। सारांश, हम लोग तब तक अपनी दुःस्थिति में बदलाव लाने की चेष्टा नहीं करते, जब तक कोई गंभीर परिणाम हमें विवश नहीं करता।

 

हम लोग ऐसा क्यूँ करते हैं? क्या हमारी अनास्था के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हैं? क्या यह एक प्रकार की शारीरिक या मानसिक व्याधि है? क्या यह आनुवंशिक बीमारी है? क्या यह वातावरण का प्रभाव है? या तो फिर हमारी शिक्षा प्रणाली इसके लिए ज़िम्मेदार है? क्या यह अनास्था शुरू से ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का हिस्सा है, या आधुनिक काल की देन है? इस लेख में हम इन प्रश्नों के उत्तर खोजने की कोशिश करेंगे।

 

हमारी भारतीय संस्कृति की गणना विश्व की महान संस्कृतियों में होती है। हमारी पुरातन संस्कृति के गुण गाते हुए हम नहीं थकते। भारत में सुवर्ण युग था। शांति, अहिंसा, समृद्धि, सत्य, नेकी, न्याय, कला और कौशल का निवास यहाँ पर था। यह भूमि धरती पर स्वर्ग कहलाती थी।

 

यह सारी बाते बिल्कुल सच हैं। हमारे पुरखों ने भौतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में बड़े उँचे मकाम हासिल किए थे। हमारा देश इतना संपन्न था कि उन्नीसवी सदी के मध्य तक भारत और चीन की गणना दुनिया के सबसे अमीर देशों में होती थी। लेकिन दुर्भाग्यवश्य मध्य युग में हमारे समाज की रचना बिगड़ गयी। कई ख़ामियाँ इसमें पैदा हो गयी। हम परकीय आक्रमणों का शिकार बन गये। बर्बर आक्रमकों ने हमें परास्त कर दिया। हमारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँची और ग़ुलामी की अवस्था में हम लोग जीने लगे। हमारा नैतिक अधःपतन हुआ। आज पायी जानेवाली सार्वत्रिक अनास्था इसी का फल है।

 

एक पुराने श्लोक में बिगड़ी हुई सामाजिक व्यवस्था का चित्रण किया गया है-

 

एतस्मिन् नगरे महान् कथयतां तालद्रुमाणां गणः ।
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातः गृहित्वा निशि।
को दक्षः परदारवित्तहरणे सर्वेऽपि दक्षाः जनाः।
कस्मात् जीवसि हे सखे कृमिविषन्यायेन जीवाम्यहम् ॥

 

एक मुसाफ़िर घूमते घूमते एक अनजान नगरी तक पहुँचता है। वहाँ उसकी मुलाकात उस नगरी के एक रहिवासी से होती है। मुसाफ़िर उस रहिवासी से उसकी नगरी के बारे में कुछ पूछताछ करता है। दोनों के बीच यह संवाद होता है-
'भैया, इस नगरी में महान कौन है?'
'महान? इस नगरी में तो सिर्फ ताल के वृक्ष ही महान हैं! उनका एक झुरमुट यहाँ पर है।'
'अच्छा, इस नगर में कोई मशहूर दाता तो अवश्य होगा?'
'दाता! यहाँ सिर्फ एक ही व्यक्ति है, जो किसी को कुछ देता है, और वह है हमारा धोबी। रोज सुबह वह शहरके वासियों को साथ सुथरे कपडे बाँटता है। वही कपडे जो पिछली रातको को उसने धोने के वास्ते इकठ्ठा किये थे!'
'क्या मज़ाक करते हो भैया! अच्छा, रहने दो. यह तो बताओ, इस नगरी में अपने कर्तव्य का पालन करने वाले दक्ष व्यक्ति तो ज़रूर होगे?'
'हाँ, हाँ क्यूँ नहीं! इस नगरी का हर एक प्रजानन दक्ष है। पराया धन और परायी औरत का हरण कैसे किया जाय, इस पर सबकी पैनी नज़र है!'
'राम, राम! कैसे नर्क में आ पहुँचा हूँ! अरे भलमानस, तुम इस भयानक नगरी में कैसे गुज़ारा करते हो?'
'बस, उसी तरह, जिस तरह विष के अंदर कृमि पनपते है!'

 

क्या हमारी हालत भी विष के कृमियों जैसी है?

 

हो सकता है, हमारे इर्द गिर्द फैले हुए विष से बचने के लिए, अनास्था का सुरक्षा कवच हमने पहन लिया है। और यह आवश्यक भी है। अगर हम हमारे आसपास पायी जाने वाली हर दुर्दशा से व्यथित होने लगे तो मन की शांति खो बैठेंगे। बड़ा तनाव हमारे जीवन में पैदा होगा। सड़क हादसे की ओर हम अनदेखी करते हैं क्यों कि दख़ल देने पर पुलिस हमें सताती है। चारों तरफ फैले हुए गंदगी के ढेरों को साफ़ करना तो हमारे बस की बात ही नहीं। तो क्यूँ फिक़्र करें? हम तो बस अपने काम से काम रखते हैं। दूसरों के झमेलों को सुलझाने में हम पड़े तो हमारे जीवन में जो थोड़ा बहुत सुख चैन है, उससे भी हम हाथ धो बैठेंगे। इस लिए शायर ने कहा है-

 

तुम भी चले चलो यूँ ही, जब तक चली चले! (ज़ौक़)

 

हमारे साधु संतों ने भी यही उपदेश दिया है-

ठेविले अनंते तैसेचि रहावे। चित्ती असो द्यावे समाधान॥ (तुकाराम)

 

बड़े बड़े दार्शनिक कहते है कि यह दुनिया माया है। इसके जाल में मत फँसो! ज़र, ज़मीन, ज़न, ज़ेवर कुछ न काम आयेगा, ख़ाली हाथ आया है, ख़ाली हाथ जाएगा। फिर क्यूँ इस खोखले संसार को सुधारने की कोशिश में लगें? जनन मरण के फेरे से छुटकारा पाना है तो मोक्ष की साधना में लगे रहो।

 

कुछ इने गिने संतों ने अवश्य सांसारिक कर्मों पर ज़ोर दिया, जिनमें महाराष्ट्र के संत रामदास स्वामी थे। रामदास कहते है-

 

" केल्याने होत आहे रे । आधी केलेचि पाहिजे ॥ यत्न तो देव जाणावा । अंतरी धरितां बळें ॥ अचूक यत्न तो देवो । चुकणें दैत्य जाणिजे ॥" " कष्टेविण फळ नाहीं । कष्टेविण राज्य नाहीं ॥ आधी कष्टाचे दु:ख सोसिती । ते पुढे सुखाचे फळ भोगिती ॥ आधी आळसें सुखावती । त्यांसी पुढे दु:ख ॥" 

 

इसी दौर में शिवाजी महाराज पैदा हुए। उन्होंने यत्न की पराकाष्ठा की, और हिंदुओं के स्वराज्य का निर्माण किया। उन्नीसवी सदी के अंत में स्वामी विवेकानंद का उदय हुआ, जिन्होंने अपनी दिव्य वाणी से समूचे देश में चेतना की लहर फैलायी, और गहरी नींद में सोये हुए देश को जगाया । स्वामी दयानंद ने वेदों के ज्ञान के प्रकाश में इस आर्यभूमि की जनता को प्रखर कर्म की ओर उद्युक्त किया। तिलक महाराज ने कर्मयोग के आधार पर गीता का विवरण देकर स्वतंत्रता के संग्राम को बल दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी कर्मयोग की जीती जागती मिसाल थे।

 

इन महापुरुषों के भरसक प्रयासों के फल स्वरूप कुछ तत्कालीन आंदोलन भी हुए, लेकिन क्या हमारी वृत्ति में कुछ मूलभूत परिवर्तन हुआ? एक उदाहरण ग़ौर करने लायक है-

 

गांधीजी ने देश के देहातों को साफ़ करने के लिए अभियान चलाया था। वह ख़ुद भी हाथ में झाडू लेकर इस अभियान में शामिल हुए। सुबह सवेरे वह अपने स्वयंसेवकों के साथ सेवाग्राम आश्रम से निकल पडते थे और अडोस पडोस के ग्रामों में जाकर सफ़ाई करते थे। ग्रामवासी इकठ्ठा होकर बड़े चाव से यह तमाशा देखते थे। आगे चलकर तो ग्रामवासी बड़ी उत्सुकता से सड़क के किनारे खड़े होकर प्रतीक्षा करने लगे कि कब महात्मा आता है और हमारा गाँव साफ़ करता है! बस यही है हमारी मानसिकता! कोई महात्मा आकर हमारे सार्वजनिक जीवन की गंदगी साफ़ करें!

 

इस मानसिकता को कैसे बदला जाएँ? क्या कोई उपाय है?

 

उपाय अवश्य है। पहले तो जो वास्तविक स्थिति है, उसे स्वीकार करना होगा। हम अपने खोये हुए वैभव के सपने देखते रहे तो विकास की राह पर आगे बढ़ नहीं सकते। हमारे झूठे अभिमान को तिलांजली देनी होगी। अंध विश्वास के आधार पर जो गतानुगतिक परंपराएँ इस देश में चल रही हैं उन्हें छोडना होगा।

 

'बातें कम कर काम ज़ियादा!' यही हमारा मूलमंत्र होना चाहिए। बातें बनाना इस देश का राष्ट्रीय कार्यक्रम हो चुका है। पहले तो सिर्फ मुँह से बातें होती थी, अब तो लोग अँगूठों से बाते करते है। फेसवुक और व्हाटस् ऐप पर बातों का सिलसिला दिन रात चलते रहता है। शायद कुछ कमी रह गयी, इसलिए टी. वी. चैनलों पर देश की हर एक समस्या को लेकर चर्चा सत्र होते है, जिनमे बातें करनेके लिए बड़े बड़े विशेषज्ञों को स्टुडियों में आमंत्रित किया जाता है। यह विशेषज्ञ बातों की ऐसी झड़ी लगाते है, कि जैसे देश की हर समस्या का हल टी.वी. स्टुडिओ में ही निकल आयेगा। कहने की आवश्यकता नही कि सत्र के ख़त्म होने पर बात भी ख़त्म होती है, आगे कुछ नहीं होता।

 

हमारी बेबसी और दुर्दशा को मिटाने के लिए कुछ काम करना ज़रूरी है, काम से बचने के लिए हम बाते करते रहते हैं। दूसरा उपाय है नशीले पदार्थों को अपनाना ताकि हम हमारी दुर्दशा और बेबसी को भूल सके।

शराब, गुटखा, तमाखू की लत पहले तो निम्न वर्ग के लोगों में पायी जाती थी, अब भद्र लोगों में भी बढ़ती जा रही है। टी.वी., बौलिवूड, क्रिकेट, नेताओं के भाषण, यह सारे नशीले पदार्थ ही है, जिनसे जनता अपने ग़म भुलाने की कोशिश करती है। जब इस नशाख़ोरी को हम छोड़ देंगे तभी अनास्था का पटल हमारी आँखों से दूर होगा।

 

हम सब इस देश की संतान है और स्वामी विवेकानंद की यह दिव्य वाणी जो क़रीब सौ वर्ष पहले प्रकट हुई, आज भी हमें हमारे परम पवित्र कर्तव्य की याद दिलाती है-

 

'मेरे देशवासीयों, मित्रों, मेरी संतानों- इस राष्ट्र का जहाज सदियों से लाखों लोगों को ढोता जा रहा है, और संसार सागर के पार उन्हें पहुँचाता रहा है। लाखों लोगों को आज तक इस जहाज ने मोक्ष का आनंद प्रदान किया है...आज इस जहाज में कुछ छेद हो गये हैं। क्या इसलिए आप लोग इसे दूषण देंगे?.. आइयें, इन छेदों को बंद करने के प्रयास में लगे रहें. जी जान से लगे रहें!'