दुख तो अपना साथी है.

- रवींद्र शिवदे 

 

क्या इस शीर्षक को पढ़कर आप चौंक गये? क्या आप जल्दी से पृष्ठ पलटकर आगे बढ़नेकी सोच में है? या नाराज़गी से मुझे कोस रहे है - ' ये कैसा मनहूस लेख 'व्हॉईस' के लिए भेज दिया! कुछ दिलचस्प बात लिखनी थी!'

 

प्रिय पाठक, आप की प्रतिक्रिया बिल्कुल स्वाभाविक है. मनुष्य हमेशा दुःख से भागने की कोशिश करता है. यहाँ तक कि दुःख का ज़िक्र, दुःख का स्मरण भी उसे अच्छा नही  लगता.  लेकिन वास्तवता तो यह है कि इस दुनिया भर में शायद ही कोई दावे से कह पायेगा  कि 'मुझे कोई दुःख नही है.'

 

समर्थ रामदास स्वामी कहते है,

 

जगी सर्व सूखी असा कोण आहे?

विचारी मना तूच शोधोनि पाहे!

 

हां, जीवन में कभी ऐसे भी क्षण आते है, जब आदमी यह सोचता है, ' वाह, मेरे जैसा सुखी दुनिया में कोई नही है.'  वह गाने लगता है- ' दुख भरे दिन बीते रे भय्या!' लेकिन यह खुशी बहुत देर तक  नही  टिक पाती. कुछ ही देर में हालात ऐसे बदल जाते है, कि वह क्षणभंगुर सुख नष्ट हो जाता है. (सुख पाहता जवापाडे, दुःख पर्वताएवढे!) इस अनुभव से बार बार गुजरने पर भी  हमारे मन में यह आशा बनी हुई रहती है की कभी ना कभी हम शाश्वत सुख के अधिकारी बनेंगे.

 

सिर्फ, अपने ही नही, अपने प्रिय जनों के लिए भी हम यही चाहते हैं कि उन पर कभी दुःख का साया तक न पड़े. मंदिरों में, मस्जिद में, चर्च में पूजा पाठ करते वक्त हम बार बार इसी प्रार्थना को दोहराते है, कि 'हे ईश्वर, मुझे और मेरे प्रिय जनों को सुखी रख! (पुरी दुनिया के लिए कुछ मांगने वाले ज्ञानेश्वर जैसे संत बहुत ही विरला.) लेकिन इस तरह की  प्रार्थना के बाद भी भगवान के भरोसे कोई निश्चिंत नही बैठता. सुख प्राप्ति के विविध साधन इकठ्ठा करने की भाग दौड में हम जुटे रहते है. दिल को बहलाने के लिए रेव्ह पार्टी  में शामिल होने वाले युवक युवती हों, या सत्ता के हर स्थान पर काबू पाने के आकाश पाताल एक करने वाले राजनेता हो, दोनों  मृगजल की ओर दौडने वाले खिलाडी है. इसी  दौड में मनुष्य की आयु बीत जाती है, और गश खाकर वह गिर पडता है. कभी प्रसंग वशात् सुख की थोडीसी छांव उसे नसीब भी होती है तो वह इस भय से व्याकुल रहता है  कि न जाने यह छांव कब हटेगी, और फिर दुःख की कडी धूप में झुलसना पडेगा.

 

कई लोग इस दौड के दौरान इतने थक जाते है की उन में आगे बढ़ने की शक्ति नही रहती, और वह हताश हो कर परिस्थिति के हाथ का खिलौना बन जाते है. इन के बारे में  महात्मा टॉलस्टॉय के गुरु हेन्‍री डेव्हीड थोरो कहते है-

 

The mass of men lead lives of quiet desperation. What is called resignation is confirmed desperation."

 

उपरोक्त दोनों प्रकार के लोग दुनिया में पाये जाते है- क्रमशः १. जो सुख का क्षणमात्र अनुभव लेकर बार बार उस अनुभव को दोहराने की आस लगाये हुए है, और सुख प्राप्ति के भौतिक  साधनों की गिरफ्त़ में आकर खोखले सुख के मृगजल की तरफ दौड रहे है. २. जो सुख प्राप्ति की आशा खो बैठे है, और जिंदगी को एक बोझ की तरह ढ़ोते हुए किसी तरह  गुजारा कर रहे है.

 

क्या मानवमात्र की यही अटल नियति है की उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति कभी नही होगी? हो सकता है ऐसे कुछ महानुभाव भी इस दुनिया में विद्यमान है जिन्हें सुख का दुर्लभ  मूलमंत्र मिल गया है, लेकिन उनकी संख्या नगण्य है.

 

नियम तो यही है कि यह संसार दुःखमय है! दुख तो अपना साथी है!

 

क्या इस घोषणा को सुनकर आप पर वज्राघात हुआ है? क्या आप सिर हिला हिला कर अपनी असंमति व्यक्त कर रहे है?

 

आप की  यह प्रतिक्रिया भी बिल्कुल स्वाभाविक है. क्यों कि, पिछले कई वर्षों से मॅनेजमेंट गुरू, कोच और काउन्सेलर अपने सेमिनारों, किताबों और सेशनों में पढ़ा रहे हैं  कि सुख एक मन की अवस्था है. बस आप जीवन की ओर देखने की दृष्टि बदल दो, सब कुछ ठीक हो जाएगा! इसे पॉझिटिव्ह मेंटल अ‍ॅटिट्यूड, सिल्वा माईंड कंट्रोल, ऐसे कई  नामों से जाना जाता है. शायद आप ने भी इस विचार धारा का पुरस्कार करने वाली किताबें पढ़ी है, या सेमिनारों में हिस्सा लिया है. सवाल यह है, कि क्या इन तकनीकों के  उपयोग से वास्तव में दुनिया में सुखी व्यक्तियों की तादाद  में वृद्धि हुई है?

 

सुख का मूल्यमापन करना तो बहुत कठिन बात है, फिर भी कोशिश की जा सकती है. सामाजिक शास्त्र के अभ्यासकों ने वैश्विक स्तर पर एक ऐसी कोशिश की है, जिसे हॅपी प्लॅनेट इंडेक्स (H.P.I.) कहा जाता है. आप को यह जानकर खुशी होगी कि भले ही अपना देश अनेकविध घोटालों से ग्रस्त हो, हॅपी प्लॅनेट इंडेक्स में भारत का नंबर पश्चिम के सारे प्रगत देशों से आगे है! (२०१२ की हॅपी प्लॅनेट इंडेक्स में भारत ३२ वाँ) हमारे पीछे कौन है? यु. के. (४१ वाँ) जापान (४५ वाँ), जर्मनी (४६ वाँ), फ्रान्स (५० वाँ) मुँह लटकाये बैठे है, प्रगति की तेज रफ़्तार से दुनिया को चकाचौंध कर देने वाला चीन मायूस हो कर ६० वें स्थान पर है और यू. एस. ए. १०५ वे नंबर पर फूट फूट कर रो रहा है. अचरज की बात यह है कि हमारे पडोसी पाकिस्तान और बांगला देश हमसे भी आगे है- . रोजमर्रा के अंतर्गत फसाद और झगडे- झमेलों के बावजूद उन्होंने १६ वाँ और ११ वाँ रैंक हासिल किया है.

 

चकरा गये ना इन नतीजों को पढ़कर? लेकिन स्वामी विवेकानंद ने इस तथ्य को पहचाना था और सौ साल पहले ही कहा था-

 

Social life in the West is like a peal of laughter; but underneath, it is a wail. It ends in a sob. The fun and frivolity are all on the surface: really it is full of tragic intensity. Now here, it is sad and gloomy on the outside, but underneath are carelessness and merriment.  (Complete Works  VIII 261-62)

 

और पढ़िये- वियतनाम जैसा छोटा देश जो हाल ही में यादवी युद्ध से तहस नहस हुआ है खुशी की इंडेक्स में विश्व में दूसरे नंबर पर है!

 

यह संशोधन एक जगन्मान्य संस्था के वैज्ञानिक परीक्षणों पर आधारित है,  इसलिए काफी गंभीरता से इसका विश्लेषण करना ज़रूरी है. इससे एक बात साफ़ साफ़ उभर आती है, कि दुनिया की नज़रों में जो विकसित देश है- पश्चिमी देश और उनकी संस्कृति का भारी तौर पर अनुकरण करने वाले चीन और जापान हॅपी प्लॅनेट इंडेक्स में पीछे पड गये है. और जिनके विकास की रफ़्तार धीमी है, लेकिन जो देश पूरब की पुरातन सभ्यता को चिपके हुए है, उनका नंबर हॅपी प्लॅनेट इंडेक्स में आगे है!

 

और यह जानकर आपको खुशी होगी की पूरब की पुरातन सभ्यता का मूलस्त्रोत भारत ही है! वियतनाम में बौद्ध संस्कृति है, लेकिन वैदिक और बौद्ध संस्कृति का मूलस्त्रोत एक ही है. हमारे पडोसी देश, पाकिस्तान और बांगला देश इस्लाम बहुल है. नेपाल हिंदु राष्ट्र है, और श्री लंका तथा भूतान प्रायः बौद्ध धर्मीय है. भले इन राष्ट्रों में भिन्न भिन्न धर्मीय लोग रहते हो, लेकिन वह सारे लोग सदियों से भारत की मूल सभ्यता से जुडे है. उन सब पर भारत की संस्कृति का प्रभाव है. इस लिए उन्होंने हमारे पुरखों की जीवन दृष्टी को अपनाया है. शायद इसी जीवन-दृष्टि ने दुःख की समस्या का हल आज की तारीख़ में उन्हें प्रदान किया है.

 

आईये अब देखते हैं हमारी पुरातन सभ्यता संसार के सुख और दुःख के बारे में क्या कहती है. स्पष्ट रूपसे हमारे धर्म शास्त्र- (हिंदु, बौद्ध और जैन) यही कहते हैं-  कि यह संसार अनित्य और दुःखमय है!

 

विरोधाभास तो यह है, कि इस सत्य को भली भाँति समझ लेने पर जीवन में सुख और शांति आ जाती है!

 

गीता में भगवान कृष्ण कहते है-

 

अनित्यं असुखं लोकं इमं प्राप्य भजस्व माम् । (९-३३)

 

'इस अनित्य और सुख से रहित लोक को पा कर मुझे भज'

 

भगवान बुद्ध ने जिन चार आर्य सत्यों का प्रकटन किया उस में पहला आर्य सत्य है- दुःख.

 

बुद्ध के माता पिता ने संसार की असलियत उन से छुपाने की कोशिश की. किंतु एक दिन जब संसार का सत्य स्वरूप अपनी सारी दाहकता लेकर उनके सामने प्रकट हुआ, तब उस आग में उन्हे बरसों तक कैद में रखने वाला भोग विलास का आडंबर भस्म हो गया. आप ने बुद्ध की मूर्ति को देखा होगा. कितनी प्रसन्नता और शांति उनके मुख मंडल पर झलकती है! लेकिन उस प्रसन्नता और शांति तक पहुँचने का रास्ता पहले आर्य सत्य 'दुःख' की पहचान से ही निकलता है. मॅनेजमेंट के गुरु खोखला आशावाद सिखाते है. लेकिन हमारी संस्कृति वास्तववाद सिखाती है. बुद्ध की विशेषता यह है कि उन्हों ने सिर्फ दुःख की वास्तवता का निदान नही किया बल्कि उस से मुक्ति पाने का रास्ता भी बताया. सिर्फ रास्ता ही नही बताया, उस पर खुद चले, और मकाम पर पहुँचकर हमें सिखाने के लिए लौट आये. 'तथागत' का मतलब है,  तथा + आगतः 'वहाँ पहुँचकर लौट आया हुआ.'

 

कृष्ण और बुद्ध के बाद जितने सारे महान पुरुष, दार्शनिक, कवि पृथ्वि पर आये, (जिनमें विभिन्न धर्मों के महानुभाव शामिल है) इसी सत्य को दोहराते चले आये है-

 

बायबल में ईश्वर स्त्री से कहता है-

 

in sorrow thou shalt bring forth children (Genesis 3-16)

दुःख की शुरुआत तो मनुष्य के जन्म से ही होती है-

 

और मरते दम तक वह साथ नही छोडता-

 

जन्म मृत्यु जरा व्याधिर्दुःख दोषानुदर्शनम् । (गीता १३-९)

 

महाकवि शेली 'स्कायलार्क' में कहते है-

 

We think before and after

And pine for what is not

Our sincerest laughter,

With some pain in is wrought

Our sweetest songs are those

That tell of saddest thought

 

और मिर्झा ग़ालिब फ़रमाते है-

 

क़ैदे हयात ओ बंदे ग़म

अस्ल में दोनों एक है

मौत से पहले आदमी

ग़म से नजात पाये क्यों?

 

और,

 

ग़मे हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग़ इलाज

शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक

 

 

फिर भी 'ऑल इज वेल' के ठेके पर झूमने वाले नादान युवा शुतुर मुर्ग की तरह रेतमें सर दबाये सत्य को देखने से कतराते है. और जब कभी 'ऑल इज अनवेल' का नंगा सत्य प्रकट होता है, तो ग्लॅमर की दुनिया के कई मॉडेलों की तरह आत्महत्त्या का रास्ता अपनाते है.

 

बात एकदम सीधी सी है- जिसे तर्क की कसौटी पर भी परखा जा सकता है. अनित्य वस्तु से सुख कभी प्राप्त नही हो सकता. क्यों कि सुख की व्याख्या है- एक ऐसी स्थिति जिसे कायम रखने को मन चाहता है. लेकिन संसार में यह मुमकिन नही, क्यों की हर क्षण यहां की हर चीज़ बदलती रहती है. बहती नदी का पानी हाथ में लिया और फिर उसे अर्पण किया तो वह नयी नदी को अर्पण होता है.

 

अब एक सवाल का उत्तर देना ज़रूरी है-

 

कोई यह प्रश्न कर सकता है कि- संसार अनित्य क्यूँ है? क्या संसार परमात्मा का स्वरूप नही है? परमात्मा तो नित्य और आनंद स्वरूप है. यूं तो कहते है 'कि कन कन में भगवान है.' फिर संसार दुःखमय क्यूँ है?

 

प्रश्न उचित है, और उस का उत्तर भगवत्पाद शंकराचार्य ने दिया है-

 

अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपंचकम् ।

आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥

 

संसार की हर वस्तु के पाँच अंश होते है- अस्तित्व, चेतना, प्रियता, रूप और नाम. इन में से पहले तीन परमात्मा की ओर संकेत करते है, और आख़री दो जगत् की ओर. अस्तित्व, चेतना, प्रियता (जिन्हें सत्, चित्, आनंद भी कहा जाता है) परमात्मा का शुद्ध स्वरूप है, जो वस्तु का अंतरंग है लेकिन जब हम दुनिया की ओर देखते है तब सिर्फ वस्तु के बाह्य रूप और नाम से मतलब रखते है, इसलिए हमारे मन में संसार की वस्तुओं के लिए या तो लालच पैदा हो जाती है या नफ़रत. और यही दुःख का मूल है। जब तक समत्व की दृष्टि से हम नही देखते, संसार दुःखमय ही प्रतीत होगा. 

 

क्या संसार के सत्य स्वरूप को पहचान लेने का मतलब संसार से मुख मोड लेना है?

 

नही, नही! ऐसा कतई नही! जिन महापुरुषों ने संसार के सत्य को पहचाना वह अपना जीवन पूरी उर्जा और उमंग के साथ जिये. तरह तरह के कामों मे अत्यधिक व्यस्त रहे. अपने दोस्तों के साथ हास्य विनोद भी करते रहे. बड़ा लोकसंग्रह उन्हों ने किया. और बुरे हालात में कभी हताश, परास्त नही हुए.

 

राम ने अपने जीवन में कौन सा सुख पाया? फिर भी, क्या वह हताश और उदास थे?

 

कृष्ण तो बचपन से ही संकटों का सामना करते आये. क्या वह संकटों से बचने के लिए किसी कोने में छुप कर बैठे थे?

 

'पंचदशी' कार विद्यारण्य स्वामी तो सर्व-संग-परित्यागी संन्यासी थे.  फिर भी विजय नगर के वैभवशाली साम्राज्य के प्रधान मंत्रि थे.

 

 

श्री शिवाजी महाराज का पूरा जीवन हादसों से और विपत्तियों से भरा हुआ था. उनकी प्रिय पत्नी सईबाईका संभाजी के जन्म के बाद देहांत हुआ. बाजी प्रभु, मुरारबाजी, तानाजी, प्रताप राव जैसे बहादुर साथी उनकी आंखो के सामने शहीद हुए. रिश्तेदार उन्हें उम्र भर सताते रहे. कई मराठा सरदारों ने बगावत की. उनके गृह में कलह मचा. पत्नी सोयरा बाई ने गद्दी की लालच में आकर कारनामे किये पुत्र संभाजी खुद मुघ़लों को जा मिला और स्वराज्य से लड़ने को उद्युक्त हुआ. इतने सारे दुःखों को झेलकर भी वह धीरज बांध कर आखरी दम तक दुष्मनों से झगडते रहे. स्वराज के काम काज को आँच नही पहुँची. मृत्यु के एक दिन पहले (३ अप्रैल १६८०) उन्हों ने अलीबाग़ का कीला बांध कर पूरा किया, और ४ अप्रैल १६८० को अपनी जीवन यात्रा समाप्त की. वह महान दार्शनिक थे.

मृत्यु शय्या पर उन्होंने कहा-

 

'हा तो मृत्युलोक च आहे. जितुके उत्पन्न झाले तितुके गेले. तुम्ही चुकूर न होणे'.

 

तो फिर आईये, दुःखमय जगत् के नामरूपात्मक स्वरूप को जान लिजिए, और उसके पीछे छिपे हुए आनंदरूप परमतत्व को भी जान लिजिए. जब तक पूर्ण ज्ञान नही होता, दुःख हमारे साथ रहेगा. उसे स्वीकार कर लिजिए. जैसे एक कुशल मांझी मौजों को अपना साथी बना लेता है, और उनके साथ खेलते खेलते नैया को पार लगाता है, आप भी अपनी जीवन नैया के मांझी बन सकते है.